सोया हुआ

आई० ए० एस० के एग्जाम की तैयारियों में इन दिनों रामस्वरूप सिंह की नींद उड़ी हुई थी। परीक्षा की तैयारी में उसने दिन-रात एक कर दिए थे। रामस्वरूप के जीजा प्रेम सिंह अपने वक्त के आई० ए० एस० टॉपर थे। तभी से रामस्वरूप ने उन्हें अपना आदर्श मान लिया था। उन्ही के जैसा उच्च अधिकारी बनने का स्वप्न लिए वह अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु इन दिनों जीजा जी के आवास स्थान में ही अपना डेरा डाले हुए था। इसका मुख्य लाभ तो यह था कि समय-समय पर राम स्वरूप को अपने जीजाजी से परीक्षाओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण टिप्स मिल जाती थी। जो उसकी एग्जाम की तैयारियों में अहम रोल अदा कर रही थी। यह सरकारी बांगला था। जो सरकार की तरफ से प्रेम सिंह को रहने के लिए मिला था।

यहाँ लम्बा-चौड़ा लॉन भी था। जहाँ अक्सर चहल-कदमी करते हुए शांतिपूर्वक पढ़ा जा सकता था। फिर जीजाजी के बच्चे अन्य शहर में पढ़ते थे। अतः हॉस्टल में ही रहते थे। इसलिए बंगले में असीम शांति पसरी हुई थी। जो पढाई के लिए आदर्श स्थिति होती है। लॉन के दूसरी तरफ़ सर्वेंट क्वार्टर था। जहाँ धर्म सिंह नाम का एकमात्र नौकर रहता था। जो बेहद हंसमुख और हाज़िर-जवाब आदमी था। रामस्वरूप जब आई० ए० एस०एग्जाम की कठिन पढाई से बोर हो जाता था तो समय पास करने और दिल बहलाने के लिए वह अक्सर धर्म सिंह के क्वार्टर में चला जाता था।

रोज़ की भांति रात्रि भोजन के उपरान्त रामस्वरूप लॉन में चहल-कदमी करते हुए पढ़ रहा था। रामस्वरूप को सिगरेट पीने की लत थी। वह अक्सर जीजा जी और दीदी से चोरी-छिपे सिगरेट पीता था। आज भी उसे सिगरेट पीने की तलब हुई। जेब में हाथ गया तो सिगरेट बाहर आई मगर संयोग से आज वह माचिस नहीं रख पाया था। अब तक बंगले की बत्ती बुझ चुकी थी। यदि इस समय बंगले में माचिस लेने गया तो जीजाजी की नींद टूट सकती है।उसने देखा सर्वेन्ट क्वार्टर की लाइट जली हुई है। शायद धर्म सिंह अभी सोया नहीं है। चलो आज उसी से माचिस ले ली जाये। इसी बहाने कुछ गपशप भी हो जाएगी तो पढाई के लिए मन हल्का जायेगा।

"धर्म सिंह, सो गए क्या?" दरवाज़े से ही रामस्वरूप ने पुकारा।

"नहीं साहब! आ जाओ दरवाज़ा खुला है।" धर्म सिंह ने लेटे-लेटे ही भीतर से कहा।

"माचिस दे थोड़ा सिगरेट की तलब मिटा लूँ।" भीतर पलंग के एक छोर पर बैठते हुए रामस्वरूप बोला। उसने किताब मेज़ पर रखी और सिगरेट को होंठों से लगा लिया।

"तुम्हारा हिसाब-किताब बढ़िया है धर्म सिंह।" धर्म सिंह से माचिस की डिब्बी लेते हुए रामस्वरूप बोला। उसने एक तिल्ली सुलगा ली और सिगरेट के मुहाने पर लगाकर वह सिगरेट सुलगाने में व्यस्त हो गया।

"क्या बढ़िया हिसाब-किताब है साहब!" हलकी-सी जम्हाई लेते हुए धर्म सिंह हैरानी से बोला।

"खा-पीकर चैन से सो जाते हो।" सिगरेट का कस लेने के उपरांत रामस्वरूप ने कहा। धुँआ वातावरण में इधर-उधर तैरने लगा। फिर बात को आगे बढ़ाते हुए बोला, "तुम्हे न वर्तमान की चिंता, न भविष्य की फ़िक्र। मुझे देखो परीक्षा की तयारी में कई दिनों से ठीक ढंग से सो नहीं पा रहा हूँ। किताबो में ऑंखें गढ़ाते हुए रात के दो-ढाई बज जाते हैं।" इस बीच सिगरेट का एक और ज़ोरदार कस लेने के लिए रामस्वरूप रुका। कस लेने के बाद उसने कहना जारी रखा, "मेरी स्थिति पर किसी शाइर ने क्या खूब कहा है-- फ़िक्रे दुनिया में सर खपाता हूँ। मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ?"

"सही कह रहे हो साहब!" आख़िर धर्म सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ी, "हम सोये हुए लोग हैं। आप जागे हुए लोग हैं।"

"क्या मतलब?" रामस्वरूप सिंह ने चौंकते हुए कहा।

"मतलब यह कि आज मैं आपके जीजा जी और दीदी के बर्तन-भांडे धो रहा हूँ। कल को आप भी अफसर हो जायेंगे तो मेरे बच्चे आपके बर्तन-भांडे धोएंगे।"

"धर्म सिंह आप गलत समझ रहे हो मेरे कहने का यह अर्थ नहीं था!" शर्मिंदगी महसूस करते हुए रामस्वरूप ने अपनी बात की सफाई देनी चाही मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह कहे तो क्या कहे?

"जानता हूँ साहब! आपके कहने का यह अर्थ नहीं था।" धर्म सिंह ने हँसते हुए कहा, "लेकिन सच्चाई तो यही है साहब।"

"अच्छा अब मैं चलता हूँ।" हंसी की एक गंभीर लकीर चेहरे पर लिए रामस्वरूप मेज़ से अपनी किताब उठाकर धर्म सिंह के कक्ष से बाहर चले आये। यह सोचते हुए शायद बेइरादा ही सही उन्हें ऐसी कठोर बात नहीं कहनी चाहिए थी।

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1 Comments

Shalini Sharma

17-Sep-2021 03:47 PM

Very nice

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